क्या कोई ख्याल तुम्हारा नहीं ?
कोई तो होगा !
कोई डर – कोई शर्म …जो मिल्कियत हो बस तुम्हारी !
या तेरे सारे डर .. तुम्हारी सारी फिक्रें….
बस उधार के ही हैं ?
वो बीज देते हैं ( अपनी ) फिक्र के तुमको ,
तुम सींच के बरगद कर देते हो .
अपनी बेफ़िक्री कि छाँव में..
उसे सुखा क्यूँ नहीं देते ?
ये बेरोज़गारी उतनी बुरी भी नहीं ,
थोड़ी फुर्सत है , आखिरी सुकून है ,
फिर मिले न मिले .
इस शर्म कि मिलावट ने इसे बदनाम कर दिया है .
ये बड़ा खुबसूरत सुकून होता , जो बेरोज़गारी तेरी …
रिश्तेदारों का रोज़गार न होती
अबके चचा जो प्लेसमेंट की बात कर , बारीक सा हंसें ,
अपने बड़े सपने बताकर , उन्हें खुल के हंसा क्यूँ नहीं देते .
ये जो तुझे गिरते बालों कि फिक्र है अब ,
पहले पहल तुम्हारी न थी .
तुम्हारे चेहरे से बेवजह भटकती ..
कुछ फिक्रमंद आँखों ने, दे दी हैं तुमको ,
तुम्हारा मोटापा , तुम्हारा रंग – ये परेशानी उनकी थी ,
उनकी खूबसूरती नसीब था तुम्हारा ….
उसको समझा क्यूँ नहीं देते !
ये जो उससे रिश्ते बिगड़ जाने का डर है
क्यूँ बस तुम्ही को है
अगर एक ही गाडी के पहिये हो तुम
तो वो क्यूँ डगमगाता नहीं ?
तुम खूबसूरत हो उससे जो हर बार माफ़ कर देते हो
पर इसबार जो वो चिल्लाये तुमपर
तो बस बराबरी के लिए –
धीमे ही सही – बुदबुदा क्यूँ नहीं देते
नौकरी चले जाने का डर ,
बस तुम्ही को नहीं ,
अपनी रोटी कि फिक्र में वो तुझे धमकता है .
चोट कि शिद्दत अगर ऊंचाई तय करती है ,
तो यकीनन उसका डर तुमसे बड़ा होगा !
अबके जो आंखे दिखाके वो डराए तुमको ,
आंखे मिला के उसको डरा क्यूँ नहीं देते !
उन सबको उम्मीदें हैं तुमसे…
जिन्होंने अपनी पूरी न की !
पीढियां रिले रेस कि बैटन थमा के,
सुस्ताती हैं और चिल्लाती हैं के तुम और तेज़ भागो ,
ताकि तुम्हारी जीत उनकी हार ढक ले .
जब जानते हो सब तो वो फालतू सी चीज..
हाँथ से गिरा क्यों नहीं देते !